Friday, September 25, 2015

आँखों का नज़रिया!

रो रो के थक गयीं यह आँकें,
शायद इनका काम ही यही है,
किसी और के लिए ही शायद,
बनी थी यह तभी।

अपने ग़म तो बहुत थे पहले,
शायद ख़ुदा ने सोच लिया,
के हम अभी और के फ़क़ीर हैं,
दे दिया एक नया दरियाँ। 

दे दिए ऐसे मोड़ हमें,
काँटों से भर दिया रास्ता,
चल देते है मगर हम भी,
क्यूँ की साथ दिया उसने हिम्मत का तोहफ़ा। 

थक के अगर कभी मन करता है बैठने का,
नहीं दिखता मगर सुकून का कोई भी गवाह,
इन आँखों को अब आदत हो चुकी है दुःख की,
की अब तो बस , ना रहा यक़ीन,
अब तो बस लगता है ख़ुशी से डर ए जहनसीब। 


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